
हैदराबाद से समाचार संपादक देहाती विश्वनाथ की यह विशेष रिपोर्ट
आपातकाल के 50वें साल क्या सब ने भुला दिया ? आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर पूरे देश में हलचल है. लेकिन इमरजेंसी के दौर के नायकों में से एक राज- नारायण को क्या सबने भुला दिया? रायबरेली से इंदिरा गांधी की हार और राजनारायण की जीत ने क्या आपातकाल की बुनियाद रखी ?
वाराणसी/ हैदराबाद, 19 जुलाई, 2025. देश में आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर देश में हलचल मची हुई है . बीजेपी इसे जोर शोर से उठा रही है. पीएम नरेंद्र मोदी भी ‘ मन की बात ‘ कार्यक्रम के 123 वें एपिसोड में इसे लोकतंत्र का काला अध्याय बताकर नई पीढ़ी को इसके बारे में जागरूक करने की बात कही है. हालांकि, जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फर्नांडिस, मधु लिमये, आडवाणी और वाजपेयी से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार जैसे दिग्गजों की चर्चा तो खूब हो रही है. लेकिन उस शख्स को याद करने में कंजूसी हो रही है, जिसने इंदिरा गांधी जैसे ताकतवर नेता को घुटनों के बल पर ला दिया. हम बात कर रहे हैं उस राजनारायण की, जिसने लोहिया के समाजवादी सिद्धांतों को न केवल सड़कों पर उतारा बल्कि आपातकाल का असली धूमकेतु कहें तो गलत नहीं होगा. 1917 में वाराणसी में जन्मे राजनारायण भोजपुरी और अवधी की मिट्टी से निकले जन नेता थे. भूमिहार ब्राह्मण जाति से आने वाले राजनारायण एक जुझारू नेता थे. उनके पिता का नाम अनंत प्रताप सिंह था. राजनारायण एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे. स्कूल के दौर में ही वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जेल गए और डॉ राम मनोहर लोहिया के समाजवादी सिद्धांतों को दिल से अपनाया . उनकी सादगी, हास्य और निडरता ऐसी थी कि लोग उन्हें सुनने के लिए टूट पढ़ते थे .
क्यों भुला दिए गए राज नारायण ?
लोहिया के सपनों सामाजिक न्याय, समता, और लोकतंत्र को वे सड़क से संसद तक ले गए. 1971 में जब कोई भी इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़ने को तैयार नहीं था, राजनारायण ने लड़ने का हां भरी. हालांकि, वे चुनाव हार गए, लेकिन हार कहां मानने वाले थे? उन्होंने कोर्ट में याचिका दायर की और 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया. बस, यहीं से शुरू हुआ वो तूफान, जिसने 13 दिन बाद आपातकाल को जन्म दिया.
50 वें साल में राजनारायण की गूंज क्यों नहीं ?
2025 में आपातकाल की 50 वीं वर्षगांठ पर बीजेपी और तमाम नेता उस दौर को याद कर रहे हैं, जब प्रेस की आजादी छिनी, विपक्षी नेता जेलों में ठूँसे गए और लोक अधिकार निलंबित कर दिए गए. लेकिन राजनारायण को याद करने में कंजूसी क्यों? उनकी याचिका ने तो इंदिरा गांधी को इस कदर हिलाया कि उन्होंने आपातकाल थोप दिया. सोशल मीडिया पर कुछ लोग उन्हें” लोकतंत्र का शेर ” बता रहे हैं तो कुछ कहते हैं कि अगर राजनारायण ना होते, तो शायद आपातकाल का इतिहास ही कुछ अलग होता. 1977 में तो उन्होंने कमाल ही कर दिया. रायबरेली से इंदिरा गांधी को धूल चटाकर इतिहास रच दिया. ये किसी मौजूदा प्रधानमंत्री की पहली चुनावी हार थी. न्यू यॉर्क टाइम्स में उनके निधन पर बाद में लिखा ” महात्मा गांधी के विचारों का कट्टर समर्थक, एक शेर दिल इंसान ” फिर भी, उन्हें वो सम्मान क्यों नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे ?
क्या बिना राजनारायण के आपातकाल आता ?
यह सवाल गूढ है. राजनारायण की याचिका ने इंदिरा गांधी पर इस्तीफे का दबाव बनाया, ये सच है. लेकिन क्या आपातकाल सिर्फ उनकी वजह से आया? शायद नहीं. जयप्रकाश नारायण का असहयोग आंदोलन, जनता का गुस्सा, और सेना की तख्ता पलट की अफवाहें भी माहौल गरमा रही थी. पश्चिम बंगाल के सीए सिद्धार्थ शंकर रे ने तो जनवरी 1975 में ही आपातकाल की सलाह दे दी थी. फिर भी, राजनारायण की याचिका ने आग में घी डालने का काम किया. अगर वो याचिका नहीं होती, तो शायद आपातकाल का समय या रूप अलग होता, लेकिन इसे पूरी तरह टालना मुश्किल था. बीजेपी हो या अन्य दल, राजनारायण की समाजवादी विरासत शायद उनके लिए असहज है. उनकी निडरता, लोहिया के सिद्धांतों को जमीनी स्तर पर लागू करने की जिद, और तानाशाही को ललकारने का जज्बा आज भी प्रासंगिक है. आपातकाल के 50 वें साल में उनकी अनदेखी अफसोसजनक है. वे सिर्फ इंदिरा को हराने वाले नेता ही नहीं थे बल्कि लोकतंत्र के उसे जुनून का प्रतीक थे, जो सत्ता को चुनौती देता है. राजनारायण की कहानी समाजवाद, साहस और लोकतंत्र की जीत की कहानी है. आपातकाल के 50 वें साल में उनकी चर्चा हमें याद दिलाती है कि एक अकेला शख्स भी सत्ता के तूफान को रोक सकता है. क्या अब समय नहीं, कि इस धूमकेतु को वो सम्मान मिले, जिसका वो हकदार हैं ?