जेपी की पुण्यतिथि पर

संपूर्ण क्रांति के प्रणेता, महान स्वतंत्रता सेनानी, भारत रत्न लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि पर उन्हें कोटिश: नमन व विनम्र श्रद्धांजलि

नई दिल्ली / हैदराबाद, 10 अक्टूबर, 2025. गैर- कांग्रेसवाद के सिद्धांत भले ही डॉ राम मनोहर लोहिया ने दिया था लेकिन उसकी बिना कांग्रेस की केंद्र की सत्ता से पहली बेदखली 1977 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के तत्वावधान में ही संभव हुई. हमारी आज की युवा पीढ़ी के कम ही लोग जानते होंगे कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण के लंबे सार्वजनिक जीवन का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग उनके निधन से दो सौ दिन पहले ही 23 मार्च, 1979 को घटित हुआ था. दुर्भाग्यपूर्ण होने के बावजूद वह इस अर्थ में दिलचस्प है कि उसने इस देश को क्या दुनिया का इकलौता ऐसा नेता बना दिया, जिसे उसके देश की संसद ने उसके जीते जी ही श्रद्धांजलि दे डाली थी . उस रोज दरअसल हुआ यह की जब वे अपने गुर्दों की लंबे अरसे से चली आ रही बीमारी से पीड़ित होकर मुंबई के जसलोक अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे, सरकार नियंत्रित आकाशवाणी ने दोपहर बाद 1 बजकर 10 मिनट पर अचानक खबर देनी शुरू कर दी कि उनका निधन हो गया. उस वक्त उनके ही अहर्निस प्रयत्नों से संभव हुई कांग्रेस की बेदखली के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी का शासन था और हद तब हो गई थी, जब आकाशवाणी की खबर की पुष्टि कराए बगैर तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष केएस हेगडे ने प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के हवाले से लोकसभा को उनके निधन की सूचना दे डाली और श्रद्धांजलियों व सामूहिक मौन के बाद सदन को स्थगित कर दिया गया. खबर सुनकर लोग अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन के लिए जसलोक अस्पताल पहुंचने लगे तो जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर अस्पताल में ही थे. उन्होंने बाहर आकर लोगों से क्षमा याचना की और बताया कि लोकनायक अभी हमारे बीच हैं. हम जानते हैं कि 23 मार्च को समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया की जयंती होती है और ऐन इस जयंती के ही दिन जेपी को जीते जी श्रद्धांजलि की शर्मनाक विडंबना तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई व उनकी सरकार के गले आ पड़ी तो गलती सुधारने के लिए लोकसभा के स्थगन के 4 घंटे बाद ही फिर से उसकी बैठक बुलानी पड़ी और विपक्षी कांग्रेस के सांसदों ने इसको लेकर उनकी सरकार की खूब ले दे की. बहरहाल, जीते जी मिली संसद की ‘ श्रद्धांजलि’ के बाद जेपी दो सौ दिन तक हमारे बीच रहे और 8 अक्टूबर, 1979 को इस संसार को अलविदा कहा. जिसके लंबे अरसे बाद 1998 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘ भारत रत्न ‘ से सम्मानित किया गया . अपने विद्यार्थीकाल से ही अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ बहुविध सक्रिय रहे जेपी ने स्वतंत्रता के बाद राजनीति को लोकनीति में परिवर्तित करने के प्रयत्नों में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. आचार्य विनोबा भावे के सर्वोदय व भूदान आंदोलनों से आकर्षित होकर उनकी तरफ गए और चंबल के डकैतों के आत्मसमर्पण व पुनर्वास में भी योगदान दिया. लेकिन सच पूछिए तो देश की सबसे बड़ी सेवा उन्होंने 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मनमानियों के खिलाफ छात्र असंतोष के रास्ते शुरू हुए व्यापक आंदोलन का नेतृत्व करके की . इसी दौरान 5 जून, 1975 को पटना के गांधी मैदान में एक बड़ी रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने संपूर्ण क्रांति का ऐतिहासिक आह्वान किया . यह आंदोलन चल ही रहा था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने
रायबरेली लोकसभा सीट से प्रतिद्वंदी रहे राजनारायण की याचिका पर फैसला सुनाते हुए श्रीमती गांधी का निर्वाचन रद्द कर दिया. इसके मद्देनजर 25 जून, 1975 को जेपी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में नागरिकों और सरकारी अमलों/ बलों से उनके असंवैधा निक आदेशों की अवज्ञा की अपील कर दी, तो सहमे से भरी इंदिरा गांधी ने न सिर्फ देश पर इमरजेंसी थोप दी, बल्कि जेपी समेत लगभग सारे विपक्षी नेताओं को जेल में ठूस कर नागरिकों के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार छीन लिए. उस 19 महीने लंबे अंधेरे में जेपी ने इकलौते रोशनदान की भूमिका निभाई और 1977 में इंदिरा गांधी द्वारा अपनी जीत की गलतफहमी में कराए गए आम चुनाव में व्यापक विपक्षी एकता के सूत्रधार बने. फलस्वरूप वे करारी हार हारी और देश को ” दूसरी आजादी” मिली