पत्रकारिता में संपादक की दुनिया के साथ ही बदल गई नैतिकता

इस देश की पत्रकारिता में, वह अंग्रेजी की हो, हिंदी की या किसी अन्य भारतीय भाषा की, एक समय संपादक बहुत शक्तिशाली हुआ करते थे. अब वैसे संपादक या तो हैं ही नहीं या हैं तो अधिकांश बंगला, गाड़ी आदि की चाह में इतने अशक्त हो गए हैं कि उनके होने का इसके सिवा कोई अर्थ नहीं रह गया है कि उनके रहते उनके मलिकान को अलग से पीआरओ नहीं रखना पड़ता.

नई दिल्ली/ हैदराबाद, 26 अक्टूबर, 2025. गोस्वामी तुलसीदास ने अपने’ रामचरित्रमानस ‘ में लिखा है कि अयोध्या के महाराज दशरथ ने एक दिन स्वभावत: दर्पण में अपना मुख देखकर मुकुट सिद्ध किया तो पाया कि उनके कान के समीप के बाल सफेद हो गए हैं. इससे उन्हें लगा कि वृद्धावस्था उनको उनके ज्येष्ठ पुत्र राम को युवराज- पद देकर अपने जन्म व जीवन का लाभ लेने का उपदेश दे रही हैं. परेशान मत होइए. मैं यह बातें आपके कंधे का सहारा लेकर अपना रोना रोने की सहूलियत हासिल करने के लिए नहीं बता रहा. यह बताने के लिए भी नही कि मैंने पत्रकारिता की तलाश में कौन-कौन से तीर मार लिए हैं. वह क्या है कि अब तक के जीवन में पत्र – पत्रिकाओं और पोर्टल्स वगैरह के लिए थोड़ी बहुत कलम घिसाई के अलावा कुछ खास कर नहीं पाया हूं और अपने तमाम तीरों के तुक्के में बदल जाने के कारण, जिसे शिखर कहते हैं, उसे तो दूर से भी नहीं देख पाया हूं. दशक पर दशक बीतते गए हैं, लेकिन संपादकों से मिलती आई थोड़ी पुचकारों और ढेर सारी दुत्कारों के बीच उनकी दुनिया भी मेरे निकट प्राय: अपारदर्शी व अबूझ ही बनी रही है.

वह जो थे एम. चेलापति राव !

लेकिन पहले थोड़ी उधर- उधर की. हम जानते हैं कि इस देश की पत्रकारिता में, वह अंग्रेजी की हो, हिंदी की या किसी अन्य भारतीय भाषा की, एक समय संपादक बहुत शक्तिशाली हुआ करते थे. कहना चाहिए सर्वशक्तिमान. बहुतों की निगाह में ‘ कविर्मनीषी परिभू : स्वयंभू ‘. कम से कम मुझ जैसों को बाहर बाहर से कुछ ऐसा ही लगता था. जब हम पत्रकारिता के छात्र थे, एक प्रशिक्षक हमें 1946 से 1978 तक लखनऊ के अंग्रेजी दैनिक ‘ नेशनल हेराल्ड’ के संपादक रहे एम. चेलापति राव के किस्से सुनाया, जिनमें से एक कुछ इस तरह था : एक बार इंदिरा गांधी उनके कार्यालय आई तो वे उनका स्वागत करने को कौन कहे, शिष्टाचार भेंट के लिए भी अपने कक्ष से बाहर नहीं आए. इसके बावजूद पंडित नेहरू उन्हें भारत का सबसे काबिल पत्रकार मानते थे और ‘ नेशनल हेराल्ड ‘
के रजत जयंती समारोह मे कहा था कि लोग सोचते हैं कि यह मेरा अख़बार है. लेकिन असल में यह चेलापति राव का अखबार है, जिन्होंने इस इस मुकाम तक पहुंचाया है. इस सदाशयता के बावजूद चेलापति राव को नेहरू की नीतिगत कमजोरियों को बख्शना गवारा नहीं था और वे उनकी मुखर आलोचना किया करते थे.

” नौकरी करने दीजिए प्लीज !
उक्त संपादकप्रवर का फोन सुनते ही मुझे यह किस्सा बार-बार याद आता रहा और अब इस नतीजे पर पहुंच गया हूं कि अपनी हिंदी में, कहना चाहिए, इसकी मुख्यधारा पत्रकारिता में, वैसे संपादक या तो है ही नहीं या बांगला, गाड़ी व नौकर की चाह में इतने अशक्त हो गए हैं कि उनके होने का इसके सिवा कोई अर्थ नहीं रह गया है कि उनके रहते उनके मालिकों को अलग से पीआरओ नहीं रखना पड़ता.

अक्ल पर पत्थर !
और एक संपादक, जिन्हें मेरे सारे बाल सफेद हो जाने के बावजूद मेरे लिए’ तुम’ से ‘ आप ‘ पर ‘ उतरना ‘ कबूल नहीं है , मुझे प्राय: कहते हैं कि ‘ तुम अपने लेखों में कुछ ज्यादा ही अक्ल लगा देते हो.’ फिर पूछते हैं कि हिंदी में इतनी अक्ल वाली चीजें भला कौन पढ़ता है और ‘ ज्ञान’ देते हैं कि कुछ हल्का-फुल्का लिखा करो. पिछले दिनों पूछ लिया मैंने कि क्या आपने इस निष्कर्ष वाला कोई अध्ययन कराया है कि हिंदी में अक्ल वाली चीजें नहीं पढ़ी जाती, तो उन्होंने मेरी और कुछ ऐसे देखा जैसे कहना चाहते हों कि ‘ तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं !.’